Sunday, April 8, 2012

मैं भी घर पर न रहा वक़्त मुक़र्रर कर के

संग को तकिया बना कर, ख़्वाब को चादर कर के
जिस जगह थकता हूँ, पड़ा रहता हूँ बिस्तर कर के

अब किसी आन्झ का जादू नहीं चलता मुझपर
वो नज़र भूल गयी है, मुझे पत्थर कर के

यार लोगों ने बहुत रंज दिए थे मुझको
जा चुके हैं जो हिसाब बराबर कर के

उसको भी पड़ गया एक और ज़रूरी कोई काम
मैं भी घर पर न रहा वक़्त मुक़र्रर कर के

दिल की ख्वाहिश ही रही, पूछेंगे एक दिन उस से
किस को आबाद किया है मुझे बर्बाद कर के

--अज्ञात

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