Thursday, October 22, 2015

न मुल्क न शहर न ये घर अपना

न मुल्क न शहर ना ये घर अपना
दिल से जाता नहीं है ये डर अपना

बर्फ पे नीले पड़े जिस्म उन नौनिहालो के
सांप भी रो पड़ते जिन्हें देते ज़हर अपना

कैस अब होते तो कहाँ बसर करते
सहरा में बसा है किसी का शहर अपना

रक़ाबत अपने बस का रोग न था
रकीब से कैसे बचाता मैं घर अपना

अमोल सरोज

Sunday, October 18, 2015

बहुत मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरी

बहुत मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरी
लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे.

अज्ञात

Saturday, October 17, 2015

कभी हो मुखातिब ...

कभी हो मुखातिब तो कहूँ क्या मर्ज़ है मेरा,
अब तुम ख़त में पूछोगे तो खैरियत ही कहेंगे...

अज्ञात

Monday, October 5, 2015

बहुत तावील सदमा है

बहुत तावील सदमा है
तेरी मुख़्तसर मोहब्बत का

--अज्ञात

Sunday, October 4, 2015

आज नहीं, तो कल निकलेगा

कोशिश कर, हल निकलेगा
आज नही तो, कल निकलेगा।

अर्जुन के तीर सा निशाना साध,
जमीन से भी जल निकलेगा ।

मेहनत कर, पौधो को पानी दे,
बंजर जमीन से भी फल निकलेगा ।

ताकत जुटा, हिम्मत को आग दे,
फौलाद का भी बल निकलेगा ।

जिन्दा रख, दिल में उम्मीदों को,
समन्दर से भी गंगाजल निकलेगा ।

कोशिशें जारी रख कुछ कर गुजरने की,
जो है आज थमा-थमा सा, वो चल निकलेगा ।

-अज्ञात