जाते थे मेरे हक़ में सब ही फैसले मगर
मुनसिफ ने भी हर बार दिया साथ उसी का
एक वो है के यूँ तोड़ दिए रिश्ते सभी हमसे
एक दिल है के रहता है तरफदार उसी का
--अज्ञात
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जाते थे मेरे हक़ में सब ही फैसले मगर
मुनसिफ ने भी हर बार दिया साथ उसी का
एक वो है के यूँ तोड़ दिए रिश्ते सभी हमसे
एक दिल है के रहता है तरफदार उसी का
--अज्ञात
ठहरी ठहरी सी तबियत में रवानी आई
आज फिर याद मोहब्बत की कहानी आई
आज फिर नींद को आँखों से बिछडते देखा
आज फिर याद कोई चोट पुरानी आई
मुद्दतों बाद चला उन पर हमारा जादू
मुदत्तो बाद हमें बात बनानी आई
मुद्दतो बाद पशेमा हुआ दरिया हमसे
मुद्दतों बाद हमें प्यास छुपानी आई
मुद्दतों बाद मयस्सर हुआ माँ का आँचल
मुद्दतों बाद हमें नींद सुहानी आई
इतनी आसानी से मिलती नहीं फन की दौलत
ढल गयी उम्र तो गजलो पे जवानी आई
--इकबाल अशर
उसे बचाए कोई कैसे टूट जाने से
वो दिल जो बाज़ न आये फरेब खाने से
वो शखस एक ही लम्हे में टूट-फुट गया
जिसे तराश रहा था में एक ज़माने से
रुकी रुकी से नज़र आ रही है नब्ज़-इ-हयात
ये कौन उठ के गया है मरे सरहाने से
न जाने कितने चरागों को मिल गयी शोहरत
एक आफ़ताब के बे-वक़्त डूब जाने से
उदास छोड़ गया वो हर एक मौसम को
गुलाब खिलते थे जिसके यूँ मुस्कुराने से
--इकबाल अशर
ये रात ये तनहाई और ये तेरी याद
मैं इश्क न करता तो कब का सो गया होता
--अज्ञात
उसे फुरसत नहीं मिलती ज़रा सा याद करने की
उसे कह दो हम उसकी याद में फुरसत से बैठे हैं
--अज्ञात
बिछड़ के तुमसे ज़िन्दगी सज़ा लगती है
ये सांस भी जैसे मुझसे ख़फ़ा लगती है
तड़प उठते हैं दर्द के मारे
ज़ख्मो को जब तेरे शहर की हवा लगती है
अगर उम्मीद-ए-वफ़ा करूँ तो किससे करूँ
मुझको तो मेरी ज़िंदगी भी बेवफा लगती है
--अज्ञात
वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं
कौन दुःख झेले आजमाए कौन
आज फिर दिल है कुछ उदास उदास
देखिये आज याद आये कौन
जावेद अख्तर
मैं जानता हूँ कि ख़ामोशी में ही मस्लहत है
मगर यही मस्लहत मेरे दिल को खल रही है
जावेद अख्तर
[मस्लहत=समझदारी]
चेहरा बता रहा था कि बेचारा मरा है भूख से
सब लोग कह रहे थे कि कुछ खा के मर गया
--अज्ञात
वो अपना भी नहीं पराया भी नहीं
ये कैसी धूप है जिसका साया भी नहीं
किसी को चाहा ज़िन्दगी की तरह
उससे दूर भी रहे और भुलाया भी नहीं
--अज्ञात
रिश्वत भी नहीं लेता कम्बख्त जान छोड़ने की,
ये तेरा इश्क तो मुझे केजरीवाल लगता हैं...
--अज्ञात