Friday, November 9, 2012

फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद

फिर उसी रहगुज़र पर शायद
हम कभी मिल सकेँ, मगर शायद

जान पहचान से भी क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त गौर कर, शायद

मुन्तज़िर जिन के हम रहे उन को
मिल गये और हम-सफ़र शायद

जो भी बिछ्डे हैँ कब मिले हैँ फ़राज़
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद

अहमद फ़राज़

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