Tuesday, September 21, 2010

तेरी तलब में जला डाले आशियाने तक फ़राज़

तेरी तलब में जला डाले आशियाने तक
कहाँ रहूँ मैं तेरे दिल में घर बनाने तक
--अहमद फ़राज़

Sunday, September 12, 2010

तेज़ होती हुई बरसात से डर लगता है...

क़ीमती हो न हो सौग़ात से डर लगता है
मुझको ग़मख़ेज़ रवायात से डर लगता है

आईना ऎब निकाले है बराबर मुझमें
ख़ुद से मिलना है मुलाक़ात से डर लगता है

जीने-मरने का कोई ख़ौफ़ नहीं था पहले
अब ये आलम है कि हर बात से डर लगता है

डूबने से मैं बचा लेता हूँ सूरज का वुजूद
ख़ुदग़रज हूँ कि मुझे रात से डर लगता है

बूंदा-बांदी से हरज कोई नहीं, हो जाए
तेज़ होती हुई बरसात से डर लगता है...

--अज्ञात

जाने फिर क्यूँ हम उसी की आरज़ू करते रहे

उम्र भर जिस आईने की जुस्तजू करते रहे
वो मिला तो हम नज़र से गुफ़्तगू करते रहे
[जुस्तजू=Desire, Inquiry, Quest, Search]

ज़ख़्म पर वो ज़ख़्म देते ही रहे दिल को मगर
हम भी तो कुछ कम न थे हम भी रफ़ू करते रहे

बुझ गए दिल में हमारे जब उम्मीदों के चराग़
रौशनी जुगनू बहुत से चार सू करते रहे
[चार सू=चारों ओर]

वो नहीं मिल पाएगा मालूम था हमको मगर
जाने फिर क्यूँ हम उसी की आरज़ू करते रहे

आपने तहज़ीब के दामन को मैला कर दिया
आप दौलत के नशे में तू ही तू करते रहे

ख़ुशबुएँ पढ़कर नमाज़ें हो गईं रुख़्सत मगर
फूल शाख़ों पर ही शबनम से वुज़ू करते रहे

आईने क्या जानते हैं क्या बताएँगे मुझे
आईने ख़ुद नक़्ल मेरी हू-ब-हू करते रहे...

--अज्ञात

Wednesday, September 1, 2010

भीग जाती हैं जो पलके कभी तन्हाई में

भीग जाती हैं जो पलके कभी तन्हाई में 
कांप उठता हू मेरा दर्द कोई जान ना ले
यू भी डरता हूं की ऐसे में अचानक कोई
मेरी आँखो मैं तुम्हे देखके पहचान ना ले
--अज्ञात 

अज़ीज़तर थी जिसे नींद शाम-ओ-वस्ल में भी

अज़ीज़तर थी जिसे नींद शाम-ओ-वस्ल में भी
वो तेरे हिज्र में जागा है उम्र भर कैसे
--अहमद फ़राज़