तअल्लुका़त की क़ीमत चुकाता रहता हूँ
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता हूँ
मगर ग़रीब की बातों को कौन सुनता है
मैं बादशाह था सबको बताता रहता हूँ
ये और बात कि तनहाइयों में रोता हूँ
मगर मैं बच्चों को अपने हँसाता रहता हूँ
तमाम कोशिशें करता हूँ जीत जाने की
मैं दुशमनों को भी घर पे बुलाता रहता हूँ
ये रोज़-रोज़ की *अहबाब से मुलाक़ातें
मैं आप क़ीमते अपनी गिराता रहता हूँ
हसीब सोज़
No comments:
Post a Comment