शाम के साये, जो सूरज को छुपाने निकले
हम दिए ले के, अंधेरों को मिटाने निकले
और तो कोई न था, जो जुर्म-ए-मोहब्बत करता,
एक हम ही थे, जो ये रस्म निभाने निकले
शहर में, दश्त में, सेहरा में भी तुझको पाया
ऐ गम-ए-यार, तेरे कितने ठिकाने निकले
--अज्ञात
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