जिन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों मे बंट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से मे कुछ बचा ही नहीं
जिन्दगी मौत तेरी मंज़िल है
और तो कोई रास्ता ही नहीं
जिसके कारण फसाद होते हैं
उसका कोई अता पता ही नहीं
ज़िन्दगी, अब बता कहाँ जाये
बाज़ार मे ज़हर मिला ही नहीं
सच घटे या बढ़े, तो सच ना रहे
झूठ की कोई इन्तिहां ही नहीं
धन के हाथों बिके हैं सब कानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं
चाहे सोने के फ्रेम मे जड़ दो
आइना झूठ बोलता ही नहीं
-कृष्ण बिहारी नूर