चलो ये मान लिया के आँख मेरी नम नहीं
गुमान न कर के मेरे दिल में कोई गम नहीं
उसी को खौफ है कि मंजिलें कठिन हैं बहुत
वफ़ा की राह पे मेरा जो हमकदम नहीं
तुम्हे गुरूर है अपनी सितामगिरी पे अगर
ए दोस्त हौंसला जीने का मुझ में भी कम नहीं
सुरूर-ए-दिल भी वही है अज़ीज़-ए-जान भी वही है
के डर-ए-जीस्त पे एक नाम जो रकम भी नहीं
इल्म जो हक का उठाया है मैंने अभी
बहाल सांस है, बाजू में कलम भी नहीं
हज़ार गम हैं मगर फिर जो सलामत हूँ
तो किस तरह से कह दूं तेरा करम भी नहीं
--अज्ञात
बहुत उम्दा गज़ल पढ़वाई..
ReplyDeleteशुक्रिया इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए ......!!
ReplyDeleteये शानदार ग़ज़ल चुराई हुई है और सही भी नही है इसमे गलतियां भी हैं
ReplyDeleteइस ब्लॉग पर पोस्ट कोई भी कविता या ग़ज़ल मेरी खुद की निर्मित नहीं है । इसी लिए अंत में अज्ञात लिखा है । अगर आपको इसके लेखक का नाम पता हो तो कृपया बताएं source के साथ ।
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